- ना.रा.खराद
एक बेरोजगार युवक अपनी मांगे मनवाने पानी की टंकी पर चढ़ा, आजकल इन खाली टंकीयों का उपयोग इन्हीं कामों के लिए होता हैं।टंकी भले ही पानी के लिए हो मगर उसके अन्य उपयोग गांववासी भलीभांति जानते हैं।
गांवों में सरकारी इमारतों का उपयोग भी गांववाले अपने तरीके से करते हैं। मुख्य उद्देश्य गौण हो जाता है।गांव में सार्वजनिक चीजों का उपयोग गांववासी अपने तरीके से करते हैं।
गांववासीयों का मानना हैं कि सरकारी चीजें किसी के बाप की नहीं होती।जो जैसा चाहे वैसा उन चीजों का उपयोग करता है। कुछ अधर में लटकी सरकारी योजनाएं ,उनका अधूरा कार्य गांववासी पूरा कर देते हैं।
अवकाश के समय में जिला परिषद का स्कूल आम गांव वालों के लिए आरामगाह बन जाता है।गंजेंडी और नशेड़ी वहां कश लगाते नजर आते हैं। बीड़ीयों के अधकशे खुंट यहां वहां बिखरे रहते हैं। किसी कोने में जुआ खेलते नजर आते है। उनमें अधिकांश उसी स्कूल के बच्चे होते है।
अवकाशकालीन फर्ज निभाते हैं।
अंधेरा छाने पर स्कूल मनचलों के लिए आशिकगाह बन जाता है।गांव के तमाम मजनू अपनी आशिकी यही निभाते हैं।सबसे सुरक्षित जगह तो विद्या के ये मंदिर होते हैं,जिसपर ऊंगली नहीं उठती।
गांव में पेशाबखाने तो होते नहीं,किसी सरकारी इमारत के आसरे अपना मुत्रधर्म निभाते हैं।पानी की टंकी की छांव में जुआरी दिनभर जुआ खेलते हैं और रात होनेपर सरकारी धर्मशाला में डेरा जमाते हैं। उन्हें किसी सरकारी मुलाजिम अथवा मुखिया का डर नहीं रहता क्योंकि जुआरियों में वही प्रमुख रहते हैं।
गांव में जो सरकारी बस आती है, उसे सरकारी माल समझकर अपना राष्ट्रीय कर्तव्य मानकर उसकी सीट निकाल लेते हैं।
सरकार जो पौधे, वृक्षारोपण के लिए भेजती है अपनी हैसियत के मुताबिक अपने नीजि खेतों में गड़ चुकी होती है।गांव में सरकारी कुंओं का उपयोग गांव का कचरा डालने अथवा आत्महत्या के लिए किया जाता है।जो गांव वालों की प्यास बुझाता था मगर अब कूडेदान बन चुका था। सरकारी हैतुम्हारे बाप की जागीर नहीं,ऐसा कहते सुना था। सरकारी चीजें लावारिस कहलाती है।
गांव में एक पुल था। बच्चें वहां टट्टी करते और साथ गपशप भी।गांव की संस्कृति में सच्चा भारत बसता है , जहां जुगाड़ी से काम चलता है।गांव के किसी खाली सरकारी मवेशीखाने में मुखिया की गायों का बसेरा होता है।
गांव के दो दर्जन लोगों ने बिजली के तारों से
अपना कनेक्शन जोड़ा है।जब बिजली सरकारी है,तो झगड़ा नीजि क्यों? इसलिए कोई दखल नहीं देता।कई नलधारी एक के अनुमति में दो छेद बनाते हैं और ऊपर से किसी के बाप का पानी नहीं, कहते हैं। सरकार बाप नहीं होती या सरकार का कोई बाप नहीं होता।गांववाले तो यही मानते है।
सरकारी जमीन तो किसी बेबस स्री की तरह
होती है, जिसे हर कोई हथियाना चाहता है।
गांव के दबंग उन जमीनों पर कब्जा कर लेते
है और अपनी मालकियत का झंडा गाड़ देते
है। सरकार के चमचों को प्रसन्न रखने की कला से वे अवगत होते हैं। मिलीभगत के सिवा तो कोई सरकारी लूट तो होती नहीं।मिलकर लूटों तो ही बरकत वर्ना आफत।
गांव के सरकारी शौचालय दम तोड़ रहे होते।
पहले वर्ष पानी के अभाव में बंद रहते हैं, दूसरे वर्ष उद्घाटन के विवाद में खुल नहीं पाते
और तिसरे वर्ष उनके दरवाजें अपनी वास्तविक हालात में नहीं रहते। कुछ दरवाजे किसी के नीजि शौचालय में नजर आते।
गांव में दो सरकारी अखबार आते थे। कुछ
बुजुर्ग पहले उठा लेते और दिनभर हर पंक्ति
अपने चश्में को संभालते हुए पढ़ते, फिर वही
पाठक श्याम को उसीका कथन करते।घर लौटते समय वे अखबार घर ले जाते ताकि बच्चों के काम आए। सरकारी होने से कोई मना करनेवाला नहीं था।
सरकार गांव में जिस उद्देश्य से चाहे,जो करें
मगर सरकारी माल कहकर उसकी लूट होती
है।उसका बेजा इस्तेमाल किया जाता है।