- ना.रा.खराद
आज का दौर 'मेरी सुनो ' का है। कहीं पर भी कोई किसीकी सुनना नहीं चाहता।बस, पागलों
की तरह सुनाता ही जा रहा है।अब बातें उबाऊ
लगने लगी है क्योंकि कोई सुनने में उत्सुक नहीं है।हर कोई कान खा रहा है,कान दे नहीं रहा है।
जो मौन है,वे भी इसलिए कि मुझे न कुछ कहना
है न सुनना मगर सुनानेवाला इसलिए सुना रहा है कि न सुननेवाला उसके सुनाने में बाधा नहीं डाल रहा है।
सुनानेवाले तिनों लोक में मौजूद हैं।वे बस, सुननेवाले का इंतजार कर रहे हैं।जिनकी कोई सुन नहीं रहा है, उन्होंने आत्मकथाओं की मोटी-मोटी किताबें लिखी हैं। कहीं पर जो थोड़ा बहुत कोई सुन रहा है, उसके पीछे उसकी मजबूरी छिपी है। सामनेवाला भी यही चाहता है कि 'मेरी सुनो',अपनी न सुनाओ।
' मेरी सुनो' का यह सिलसिला मृत्यु तक थमता नहीं। दुनिया में जो कोलाहल मचा है,यह उसी का नतीजा है।
बाल्यावस्था में बालक बड़ों को अपनी सुनाता रहता है, बड़े बूढ़े उसकी सुनते रहते हैं।न सुनो तो बालक हंगामा करता है,उधम मचाता है।बालक की तस्सली के लिए चुपचाप सुन लेते हैं। वृद्ध अपनी व्यथा और कथा सुनाते हैं।
बालक को जब स्कूल में तालिम हासिल करने के लिए भेजा जाता है तो शिक्षक उसे सुनाते रहते हैं। उसकी एक नहीं सुनते। शिक्षक को तो सुनाने का सरकारी हक प्राप्त हैं। शिक्षक जो चाहे,जैसा चाहे, जितना चाहे सुनाते जाते हैं और बच्चें उनके आगे चूं तक नहीं करते।
नेताओं की सभाओं में तो ' मेरी सुनो' का नारा
बुलंद होता है। नेताओं के आगे किसकी मजाल
कि कोई विद्वान अपनी बात कहें।वे नेताजी जो
ठहरे, विद्वानों को भी नसीहतें देने की हिमाकत उनमें है। सभाओं में कानफाड़ू भाषण वे देते हैं।
बेचारे श्रोताओं को तो सुनना पड़ता हैं। लोकतंत्र
में सुनाने की कला ही नेतागीरी का पहला सबक
हैं। 'किसी की एक न सुनना' , सिर्फ सुनाते रहना,एक सफल नेता के लिए जरूरी है। हर कहीं नेता सुनाते रहते हैं और उनके चेले अथवा चमचे सुनते रहते हैं। हां में हां मिलाना चमचों का धर्म है।
कथाकार, प्रवचनकार ' मेरी सुनो ' को बखूबी निभाते हैं। श्रोता चूंकि भक्त हैं इसलिए बड़ी श्रद्धा और निष्ठा से खामोश रहते हैं ,यह और बात है कि खामोश व्यक्ति को श्रोता समझने का भ्रम वे पालते हैं अथवा इस सच्चाई को जानते हुए भी अपना मेरी सुनो का उल्लू सीधा करते हैं।
अधिकारियों को तो अपनी मातहत कर्मचारियों को सुनाने का अधिकार होता हैं। सुनाने का अपना एक आनंद है और सुननेवाले अपने अधीन हो तो सुनाने का मजा दोगुना हो जाता हैं।
घर में पति-पत्नी में 'मेरी सुनो' की होड़ लगी रहती हैं। कमजोर पक्ष को श्रोता बनना पड़ता है। दोनों 'मेरी सुनो' जिंदगी भर कहते रहते हैं मगर सुना किसीने नहीं।
मां बाप बच्चों को सुनाते रहते हैं, बच्चों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती।
कवि और साहित्यकारों ने तो जैसे सुनाने के लिए अवतार लिया है। जहां कहीं होते हैं,अपनी
रचना या रचना के बारे में अवश्य सुनाते हैं।
उन्हें लगता है किहर आदमी जैसे उनकी सुनने के लिए पैदा हुआ है।सुनाने का हुनर होता है लेकिन सुननेवाले की हामी की वे परवाह नहीं करते।
विविध कलाओं में निपुण कलाकार अपनी सुनाते हैं।घर में कभी सास बहू को तो कभी बहू सास को सुनाती है।
दो व्यक्तियों के वार्तालाप में भी कौन किसकी सुनता है? बस,अपनी सुनाता है। सुनना तो मजबूरी है, सुनाना जरुरी है।
किसी ने मकान बनाया, नौकरी पायी या पुरस्कार पाया तो सुनाता रहता है। जिसने पर्यटन किया वो भी सुनाता रहता है।
सुननेवाला सबको प्रिय है क्योंकि उससे तस्सली
होती है।सुनानेवाले से नफ़रत होने लगती हैं।
उपरोक्त सुनानेवालें और हम आम आदमी सुननेवाले है।
जो भी हो मगर सच्चाई तो यहीं है।