लोग हैं कि मानते नहीं....!

               लोग हैं कि मानते नहीं....!
                                                       ना.रा.खराद

  दुनिया के बाजार में हरकोई कुछ बेच रहा है, उसे वह व्यापार, नौकरी या मजदूरी कहें या राजनीति,जब तक लोगों को मनवाया नहीं जाता ,तब तक हम असफल ही रहते हैं। लोगों को मनवाना किसी भी कला या कारोबार के लिए आवश्यक है।
  सड़क पर केले या ककड़ी भी बेचनी हैं ,तब भी लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए कोई नुस्खा अपनाना पड़ता हैं। भिखारी तक लोगों के मन में दया पैदा करता है, ताकि लोगों को वह भिख देने के लिए राजी कर सके।
सिगरेट के पैकेट पर और शराब की बोतलों पर चेतावनी रहतीं हैं, मगर बावजूद इसके खपत बेशुमार! लोगों को जो करना होता है, करते रहते हैं और जो नहीं करना होता, नहीं करते।
   नाचनेवाली औरतें श्रोताओं को अपनी अदाओं से मोह लेती है,तब वह उन्हें ऐंठने में सफल होती है।
राजनीति तो लोगों को मनवाने का खेल है, उनके गिलेसिकवे भूलाने का खेल है। सभाओं का आयोजन, वादे और नारे किसलिए है ताकि लोग मान जाएं, लेकिन लोग हैं कि आसानी से मानते नहीं। जितनी कलाएं हैं, वे सब चाहनेवालों पर निर्भर है,जितने लोग सुनेंगे, पढ़ेंगे, देखेंगे तब कुछ बात बनती है।जिधर मुंह फेरोगे उधर कोई कुछ लिए खड़ा हैं,अपनी जिद पर अड़ा है।
अपनी चीजों को चिल्लाकर बेच रहा है,उसकी आवाज कोई सुने या ना सुने वह सुनाता जा रहा है,कभी इस गली,कभी उस गली।कभी इस शहर कभी उस शहर!
कभी यहां तो कभी वहां।कभी अपनों में तो कभी गैरों में।सारी चिल्लाहट कुछ बेचने की जद्दोजहद हैं। लाखों की भीड़ से कोई एकाध ग्राहक या रसिक हाथ आता है। यहां सारे शिकारी है। लुभाने का खेल है।सारे इश्तहार इसी के परिचायक हैं।सारा खेल, तमाशा इसी एक मकसद से है।
कोई कितना भी चिल्लाएं, लोग अपनी धुन में है। बाजार से गुजरते हैं, मगर खरीदते कुछ नहीं, वे मुफ्त में मजा ले रहे हैं।तुम अपनी सुनने उन्हें बुलाते हो,वह अपनी सुनाता है।
   लोगों की अपनी आजादी है,वे जिसे चाहे मानें या न माने,सुने या न सुने, पढ़ें या ना पढ़े। हजारों कानून या नियम बनाएं जातें मगर लोग हैं कि मानते नहीं। जितना मना किया जाएगा, लोगों को उसमें रस है।
भीड़ जमा होती है, फिर काफूर हो जाती है। लोगों के अपने तरीके हैं,मतलब है,समझ है,वे वहीं रास्ते पर अख्तियार करते हैं,जो सुविधाजनक है।
लोग अब उल्लू बनते नहीं,झांसे में आते नहीं, इसलिए नयी तरकीबे खोजी जा रही है। बाजार में अब सिर्फ शोर हैं,इस शोर को को कोई सुनता नहीं।बिक्रेता की आवाज गूंज तो रहीं हैं, मगर कोई मानता नहीं।
यहां सरकारी मकानों पर, बसों के टीनों पर
लोगों को मनवाने की बातें लिखी जाती हैं, वे फिर परिवार नियोजन की हो या कंडोम की मगर लोग हैं कि मानते नहीं,जो करना है करते रहते हैं।
हजारों साधु संत लोगों को उपदेश दे रहे हैं, लोग सुनते तो है मगर मानते नहीं हैं। लोग तो आखिर लोगों को मनवाना कोई बच्चों का खेल नहीं है।
लोग बस हां में हां मिलाते हैं,कब पांसा पलट दें इसका भरोसा नहीं है।
  सार्वजनिक स्थानों पर दीं गई सुचनाएं इस बात का द्योतक है कि लोग हैं कि मानते नहीं। किसी होटल में, प्लेट में हाथ मत धोना लिखा रहता है, मगर किसी के गले नहीं उतरता। सरकारी कार्यालयों में,'घुस लेना और देना मना है! ' मगर यह पैदायशी अधिकार की तरह धड़ल्ले से लिया जाता है।
यहां तुम कितनी भी बड़ी झोली फैलाओ, चवन्नी बड़ी मुश्किल से नशीब होती हैं।सारे दलाल लोगों को मनवाने में लगे रहते हैं, मगर लोग हैं कि मानते नहीं।
रिक्शा,टैक्सी या बसवाले यात्री को मनवाते हैं, लेकिन लोग तो लोग हैं, ध्यान नहीं देते।
दिनभर गला फाड़कर भी कुछ नहीं मिलेगा, क्योंकि लोगों को अब आदत हो चुकी हैं।
लोगों को जितना मनवाओगे लोग उतने दूर भागेंगे, लोगों को मनवाने की जरूरत नहीं, लोग खुद ब खुद आपके पास आएंगे।बस,एकही बात उन्हें मनवाने की कोशिश छोड़ दें।
 
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