गांव में खाकी वर्दीवाला डाकिया साइकिल की घंटी बजाते हुए , जैसे ही चौपाल पर आता,दर्जनभर लोग उसे घेर लेते,कोई सैनिक
की मां होती,किसी का बेटे का भेजा मनीआर्डर रहता तो किसी पढ़ें लिखे नौजवान
का नौकरी का आर्डर रहता।सब डाकिया के आने का इंतजार करते।बच्चे घर दौड़कर जाते और खबर कर देते।
उस दिन जब डाकिएने थैले में से लिफाफा निकाला ,उसपर सुधीर कोटके नाम पढ़ा ,फौरन बच्चे को उसके घर भेजा तो सब
खुशी से निहाल हुए।मां बाप की आंखों में आंसू छाए , कितने अरमानों से पढ़ाया था उसे।"पढ़ाई में कितना तेज है ,हमारा बेटा, खानदान के भाग बदल देगा अब।" अभी लिफाफा हाथ भी नहीं आया था।मगर अरमानों ने उन्हें जैसे अंधा कर दिया था।
अपना सबकुछ दांव पर लगाकर उसे पढ़ाया था। आजकल की पढ़ाई भी तो कितनी मंहगी
है।
सुधीर जब लिफाफा लेकर लौटा तो उसके साथ उसके कुछ मित्र भी थे। किसी मित्र ने
कहा,"मां जी अब ऐश करों,बेटे की कमाई से
मौज करो, चारधाम करों।" मां ने जवाब में कहा,"हां हां क्यों न करें, बरसों तक पापड़ बेले हैं,तब यह दिन देखने को मिले हैं।" मित्र
भी इस हकीकत को जानते थे।
बाबूजी तो खुशी से जैसे पागल हुए।लाठी टेकते गली में पहुंचे और हर किसीको ,"सुधीर
को नौकरी मिली है ,वो भी अच्छे तनख़ाहवाली,अब वह बड़े ठाट-बाट से रहेगा शहर में।" गांव वालों को पता था ,अपनी खेती-बाड़ी बेचकर सुधीर को पढ़ाया था , उसके पिता रघुनाथ अनपढ़ थे मगर पढ़ाई का महत्व जानते थे।
मां ने अपने बटुए से पचास रुपए को नोट निकाला,शायद वही आखरी बचा था। मिठाई
मंगवाई। मंदिर जागर हाथ जोड़कर बोलीं," हे भगवान, हमारी प्रार्थना तुमने सुन ली,पहली
तनख्वाह से पूरे गांव को खाना खिलाऊंगी।"
सुधीर अपने मां बाप की हर बात मानता था,
मां की मनिषा को उसने हंसकर मान लिया।
दो दिन बाद सुधीर को दफ्तर हाजिर होना था। बड़ा शहर था।दो माह पहले उसकी शादी
हुई थी।उसकी पत्नी पढ़ी-लिखी थी।उसे भी
नौकरी की तलाश थी।
सुधीर इकलौती औलाद थी।गांव में थोड़ी जमीन थी।बेटे के सिवा उनकी देखभाल करनेवाला कोई न था।मां और बाबूजी तो
यह मानकर चल रहे थे कि उन्हें भी साथ जाना है, बिना सुधीर से बात किए वह भी
तैयारी कर थी। आस-पड़ोस की महिलाओं को कह चूकी थी,"हम जा रहे शहर,हमारे घर
पर ध्यान रखना।" जब सुधीर ने मां की बातों
को सुना तो वह भौंचक रह गया।इधर उसकी
पत्नी भी इस बात से तिलमिला गई,बोली,"अभी तो हमारा ही ठिकाना नहीं और ।" सुधीर ने उसे आगे कहने से रोका।वह
जानता था ,शिला जुबान की तीखी है।
रात भोजन के उपरांत सुधीर ने मां और बाबूजी को सबकुछ समझाया कहा कि," जैसे
ही अच्छा मकान मिल जाए, मैं खुद तुम्हें लेने
आऊंगा ,आप सदा मेरे साथ रहोगे।" उन्हें अपने बेटे पर पूरा भरोसा था। फिर भी उसके
बिना वे कैसे रह पायेंगे ,यह सोचकर उसका दिल बैठ गया था।
जब शिला सामान समेटने लगी तो बाबूजी का गद्दा ,जो शिला की शादी में आया था,उठाने लगी तो सुधीर ने उसे रोकते हुए कहा," तुम यह क्या कर रही हो,गद्दा भी?"
अनमने भाव से उसने सुधीर की बात मान ली।
अगले दिन सामान के लिए लारी आकर खड़ी
हुई तो मां का दिल धड़कने लगा।शिला सारी
छोटी-छोटी चीजें भी ले जा रही थी।जैसे सारा घर खाली कर रही थी।बाबूजी बेमन से
इस काम में हाथ बांट रहे थे।
एक पड़ोसी ने पूछा," आप नहीं जा रहे हैं?"
बाबूजी हंसकर कहते," शहर में हमारा मन नहीं लगता, इसलिए हमने मना किए।" बेटे की प्रतिष्ठा बचाते हुए कहा।
अब निकलने का समय हुआ। आस-पड़ोस के
लोग भी विदाई देने पहुंचे। सुधीर ने जैसी ही ,"चलता हूं।" कहां मां और बाबूजी का सब्र
का बांध टुटा , सुधीर को गले लगाकर उन दोनों ने बस इतना कहा," सुखी रहो,बेटा।"
लारी कर्कश आवाज करती , वहां से निकल गई।