यह कैसा लोकतंत्र? ना.रा.खराद
भारत में सदियों से राजाओं का राज था, लेकिन अंग्रेजों के भारत में पैर जमाने से धीरे धीरे राजाओं का प्रभाव कम होता गया और उन्हें इस देश से खदेड़ने के प्रयासों से देशभक्ति की भावना प्रबल हुई। आखिरकार अथक प्रयास तथा कुछ वैश्विक उथुलपुथल से देश अंग्रेजों और राजाओं दोनों के चंगुल से मुक्त हुआ।
आजादी के बाद अब एक नई व्यवस्था की देश को जरूरत थी,उस दिशा में कदम उठाए गए, समिति गठित हुई और भारतीय संविधान ने सुरत ली। लोकतंत्र, नामक व्यवस्था का आगाज़ हुआ, उसपर अमल हुआ और देश में लोकतांत्रिक सरकार बनी। बावजूद इसके लोकतंत्र में भी उन्हीं राजाओं का प्रभाव रहा, अपने क्षेत्र में वे फिर सरकार में आएं,इस तरह कुछ खास घरानों तक ही लोकतंत्र भी सिमट गया।अनपढ़,गरीब लोगों से वोट लेना इन दौलतमंद लोगों के लिए बच्चों का खेल हुआ।गांव का प्रधान जो अधिकतर अविरोध चुने जाते,उनके आदेश पर गांव के वोट किसी के झोले में जाता था।गुलामी की एक सुरत उभरने लगी थी।
लोकतंत्र बस,एक दिन का यह गया है।वोट डालते ही खत्म। नुमाइंदे स्वयं को मालिक समझते हैं, मतदाताओं को बेबस!
गुप्त मतदान तो कहने को हैं, गाजे बाजे के साथ लाखों भीड़ जब हाथ में झंडा लिए, दलों का चिन्ह लिए नाचते हैं ,तो क्या उसका मत गुप्त है? प्रचार भी क्या चीज हैं, प्रचार के नाम पर भीड़ जुटाना क्या यह लोकतंत्र है। लोकतंत्र भी अगर धनवानों की दासी बना हुआ है,तो यह कैसा लोकतंत्र है?
संविधान का पालन कम, इस्तेमाल ज्यादा होता है।आज भी गरीब तबकों के लोगों का उपयोग जातिगत राजनीति खेलने के लिए किया जाता है।जाति बहुल इलाकों में उम्मीदवार उसी जाति का जीत जाता है, यानी जाति का प्रतिनिधित्व वो करता है। दलों की दलदल में फंसा लोकतंत्र।नयी पार्टी का निर्माण बरसात में उगनेवाले पौधों की तरह हो रहा है। राजनीति अब केवल कुटनीति का चेहरा बन गया है। पैंतरेबाजी का खेल बना है, इसके खिलाड़ी अखाड़े में उतरते हैं और इसे अंजाम देते हैं।सब मुकदर्शक बने हैं, कोई आवाज उठा नहीं सकता।रसुखदार लोग कब्जा जमाएं बैठे हैं और आमजन लोकतंत्र के इस मीठे जहर को पी रहे है।
हुकुमत, सत्ता जैसे शब्द उन्मादी है,जिनका उन्मूलन आवश्यक है। हुक्मरानों ने तो सरकारी तिजोरी का गबन किया हैं।
लोकतंत्र वास्तविकता में कितना सफल हुआ है, इसकी पडताल जरुरी है, वर्ना लोकतंत्र की आड़ में पनप रही तानाशाही किसी दिन अपना रंग दिखाएगी।