भाग्यरेखा
- ना.रा.खराद
नीचे कोई कमरा खाली न था,मगर उसकी सदा की खांसी से परिजनों को बचना था,सो उसकी व्यवस्था इस माले पर की गई थी।
उसे इससे कोई शिकवा न था,मगर माले की
सीढ़ियां चढ़ने में अब उसे दिक्कत होती थी, उसे उच्च रक्तचाप था।उसके घुटने जवाब देने लगे थे।खांसी सी वह इस कदर त्रासदी में था कि उसे सहना उसके बस में नहीं था।कभी देर रात वह बेहोश सा हो जाता था।सुबह कब आंख खुले इसका भरोसा नहीं।
जिंदगी के सफर में , पत्नी उसकी सच्ची हमसफर थी,मगर जिंदगी ने करवट ली और वह एकाएक चल बसी।उसकी तीन संतानें थी।बेटी ब्याही थी।दो पुत्र ,जो बहुत मेधावी थे।
दोनों ने अपने बूते बड़ी नौकरीयां हासिल की
थी। दफ्तर में और समाज में उनका रुतबा था,
अपने पिता से भी वे बहुत प्यार करते थे।सारी
सुविधाएं उन्होंने मुहय्या कराई थी,मगर उससे
बातें करने, उसके साथ उठने बैठने को उन्हें
फूरसत न थी।उसकी अवस्था उस बूढ़े बैल की
तरह हुई थी कि खाने को तो बहुत मिलता मगर खुंटे से बंधा।उसकी दोनों बहुएं रुपवती थी, पढ़ी लिखी थी।
उनमें इस बात को लेकर अकड़ थी।वे दोनों
अपनी संतानों को ससुर के पास न जाने देती।
कहती,"न जाने किस रोग से ग्रस्त है, कहीं हमारी औलाद उसकी चपेट में न आ जाए।"
बहुएं जब संतानों को आने से रोकती हुई कहती," दादा के पास मत जाओ,उनको रोग है।" इस ताने से वह घायल हो जाता।शरीर के जख्म तो उसने सह लिए थे,ऊपर से यह शब्दबान ।छी..छी ..लानत ऐसी जिंदगी से।
कई बार उसका मन हुआ, खिड़की से कूद जाऊं और हमेशा के लिए शांति पाऊं,मगर जिंदगी का मोह हिंमत तोड़ देता था।ऐसा नहीं उसके बेटे अपने पिता की मानसिक हालत से वाकिफ नहीं थे, अपितु वे उससे बचते थे।
उसके कमरे में पत्नी एक धूंदली तस्वीर थी।
जो दीवार पर टंगी थी।धूल चढ़ी उस तस्वीर को वह साफ करना चाहता था,मगर उस तक उसके हाथ नहीं पहुंच पाते थे। उसकी तस्वीर देखकर वह यादों में खोता जा,उसीके सहारे दिन काटता था।
एक दिन उसने बड़ी शिद्दत से तिपाई ली,उसपर चढ़ा ।रात के बारह बजे थे। जैसे तैसे वह उस तस्वीर तक पहुंचा,तिपाई हिलने लगी।खुद को संभल न पाया , एकाएक नीचे गिर पड़ा। तस्वीर के टुकड़े हुए,कांच बिखरे, दोनों बेटे, बहुएं माले पर पहुंचे, उन्होंने देखा,
'बाबूजी टूटे कांच में मां की तस्वीर खोज रहे हैं।'