- ना रा खराद
जैसे ही पौ फटी ,स्नेहा ने आंखें खोल दीं। जाड़े का मौसम था, कड़ाके की ठंड से जैसे सारी धरा कांप रही थी।रजाई की गर्मी से दूर होने का उसका मन नहीं हो रहा था।रात सोने में भी देर हो जाती थी, बर्तनों का ढेर मांजने में ग्यारह बज जाते। परिवार के सभी सदस्य भोजन के उपरांत अपने तरीके से कोई चहलकदमी, कोई मनोरंजन, गपशप और बेचारी स्नेहा अकेली काम के बोझ से दब जाती। सबको खाना परोसने के बाद बचाखुचा खाकर दिन काट रहीं थीं।
थकीमांदी बिस्तर पर लेट जाती तो देर रात पति की वासना जाग जाती उसकी मर्जी केबिना भूखे भेड़िए की तरह नोंचा जाता फिर भी वह खामोश रहती। उसे हरपल अपने मायके की याद आती मगर उस घर में इजाजत
के बगैर मायके वालों से बात करना मना था।
हमबिस्तर होने के सिवा शौहर उससे कोई वास्ता न रखता था,वह ड्यूटी पर निकल जाता
पीछे स्नेहा को बहुत परेशान किया जाता था।
वह अक्सर काम के बोझ से दबी रहती।सास
ससुर के अलावा , जेठानी,जेठ,देवर सबका
ख्याल रखना पड़ता था, जैसे वह किसीकी
पत्नी नहीं बल्कि नौकरानी हो। ससुराल था तो
धनवान मगर निहायत लालची था।कंजुषी की
तो हद थी।रात का बचा खुचा सबेरे खाना पड़ता था। भिखारी तक उनके द्वार कभी न आते।
स्नेहा गोपालदास की इकलौती पढ़ी लिखी लड़की थी। पढ़ाई में बहुत तेज थी। अपनी
गुणवान लड़की पर मां बाप जान लूटाते थे।
वे अमीर भले न थे मगर इज्जत की जिंदगी
जिते थे।उसका ब्याह भी गोपालदास ने बड़ी
धूमधाम से कराया था,मगर भाग्य कौनसी करवट लेगा किसको पता होता है।
गोपालदास बेटी स्नेहा की प्रताड़ना से दुखी
रहते थे, उन्होंने भरसक प्रयास किया पर दाल
नहीं गली। वे अक्सर परेशान रहते, उन्हें बेटी
को लेकर बूरे सपने आते , अखबार पढ़ते कि
बहू को जलाया गया।पत्नी से बात करते तो
रोते थे।स्नेहा ,कितनी प्यारी बेटी। उसके भविष्य की उन्हें चिंता सताती। कभी-कभी मिलने जाते तो ढेर सारी चीजें ले जाते।बेटी का मुरझाया चेहरा देखकर टूट जाते। लौटतेसमय उससे आंखें नहीं मिला पाते।स्नेहा छिपकर फूट-फूटकर रो पड़ती।स्नेहा की मांउसके बारे पूछती तो गोपालदास कहते,वो तो रानी बनकर जी रहीं हैं।स्वर के कंपन को वो भांप जाती फिर दोनों बिना कुछ कहे रो पड़ते।