बेटी की बदौलत

                                  बेटी की बदौलत
                                                          - ना रा खराद 
सौमित्रा ,जो देर रात सोई थी,पलक खुलते ही पिता के कमरे में पहुंची।पिता के माथे पर हाथ रखकर बड़े करुण स्वर में बोली,"जागिए न बाबूजी, मैं आपके लिए मुंह धोने गर्म पानी लाती हूं और मस्त चाय बनवाती हूं।" बेटी के दुलार से रामप्रसाद भावूक हुए।कई महिनों से वे बिस्तर पर थे।लकवे से पीड़ित थे। बड़ी तंगहाल जिंदगी जी रहे थे।उनकी
दो बेटीयां और एक बेटा था,जो तिनों में सबसे छोटा था।पिता रामप्रसाद जैसे तैसे उनकी देखभाल
करता था।मगर लकवे ने उनका सारा खेल बिगाड़ दिया। सौमित्रा से उम्र में बड़ी तो राधिका थी मगर
जिम्मेदारी बखुबी समझती थी।सोच ऐसी की बड़ों को मात दे। धैर्यवान थी।अपने बिमार पिता का पूरा
ख्याल रखती थी।यह जानते हुए भी कि,"चाय बनाने की सामग्री घर में नहीं ।" चाय पिलाने की
बात कर थी। पिता रामप्रसाद ने सौमित्रा से कराहते हुए कहा," जगु दुकानदार से उधार ले आना और कह देना ,तुम्हारा सब उधार चुका देंगे।" सौमित्रा पहले ही दुकान से खाली हाथ लौट चुकी थी। दुकानदार ने कहकर उसे लौटाया कि," तेरा बाप तो पड़ा है बिस्तर पर ,पहला ही उधार सरपर हैं ,अब नहीं मिलेगा उधार।" दुकानदार की अपनी मजबूरी थी।वह दुकान थी ,कोई दान-धर्म का सराय न था।
सौमित्रा ने अपनी बड़ी बहन से पांच रुपए मांगे,जो उसके पास थे।किसी मेहमान ने हम बच्चों के लिए
थे।राधिका बड़ी होकर नासमझ थी।हालात को नहीं समझती थी। सौमित्रा को रोता देखकर बोली," जब
देखो रोती है,जैसे हमारे हिस्से के आंसू भगवान ने तुम्हें दिए हैं।" सौमित्रा बड़ी बहन राधिका को अच्छी तरह से जानती थी इसलिए उसकी मूर्खतापूर्ण बातों की तरफ शायद ही ध्यान देती थी।
फिर खुद राधिका ने जाकर चाय की सामग्री ला दी।उबलते चाय की भाप में आंख के आंसू घूलमिल
गए थे।पिता के लिए चाय की प्याली लेकर वह कमरे में पहुंची।चाय की देरी से पिता पहचान गए,
कि कितनी मशक्कत के बाद चाय बनी है। पिता के कराहते स्वर को सौमित्रा बड़ी मुश्किल से
झेल रही थी। जैसे वह वेदना उसकी अपनी थी। और क्यों न हो। अपनी तिनों औलादों में सौमित्रा
से पिता को अधिक लगाव था। जैसे बच्ची कभी थी नहीं वो। इतनी समझदार घर की सलाहकार बनी
थी। परेशानियों में भी परिवार में हल्कापन लाने के गुर उसमें थे।अपने गुणों से वह उस परिवार की
मुखिया बनी थी।चाहती थी,पिता का इलाज हो। रिश्तेदार सलाह देते मगर सहायता नहीं करते थे।
ये वही लोग थे ,जिनकी पिताजी ने उम्रोहयात में खुब मदद की थी।आज वे केवल तमाशबीन बने
थे। फिर भी सौमित्रा का धैर्य उस परिवार को टुटने नहीं दे रहा था।उसने स्कूल की किताबों में उन बड़े
लोगों के बारे में पढ़ा था, जिन्होंने धैर्य से संकट पर मात दी थी।
एक दिन उसकी दुखी मुद्रा को देखकर उसके शिक्षक ने पूछा,"सौमित्रा,तुम निराश क्यों हो? हमें
बताओ।" फिर भी वह चुप रही।मगर सौमित्रा की एक सहेली ने हकीकत बयां की।सुनकर शिक्षक 
द्रवित हुए।अन्य शिक्षकों से कहकर उसकी मदद करनी चाही , छात्रों ने भी हाथ बंटाया।जमा राशि
से उसके पिता का इलाज हुआ।जब वे अस्पताल से लौटे तो सीधे स्कूल गए,सभी शिक्षकों से हाथ
जोड़कर बोले,"आपकी बदौलत ये हुआ है, मैं शुक्रिया अदा करने आया हूं।" एक अध्यापक ने कहा,"आपकी बेटी सौमित्रा हमारे स्कूल की शान है,हम उसे दुखी नहीं देख सके,यह सब आपकी
बेटी की बदौलत हुआ है।"
रामाप्रसाद ने बेटी को गले लगाया और फूट-फूटकर रोने लगे। जैसे कह रहे हो,"भगवान ऐसी
बेटी सबको दे।"
                     
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