पर्दे के पीछे

                                       पर्दे के पीछे
                                                        - ना.रा.खराद


 जीवन का नाटक दुनिया के मंच पर होता है मगर उसकी तैयारी पर्दे के पीछे होती है।
व्यंजन थाली में परोसे जाते हैं मगर रसोई में पकते हैं, जिसे कोई देखता नहीं। असलियत
पर्दे के पीछे होती है।आटा दिखाना और कांटा छुपाना इन्सानी चरित्र है। 
हम सिर्फ वो देख रहे हैं,जो दिखाई दे रहा है या दिखाया जा रहा है, हमें वो देखना चाहिए,जो दिखाई नहीं दे रहा है।
पर्दा मात्र कोई कपड़ा नहीं होता, अपितु हर तरह का छिपाव पर्दा है, फिर वह चिलमन हो या दीवार!
  कभी कभी ये पर्दे बहुत ही आकर्षक होते हैं, उसपार झांकने के बजाय उन्हें मुग्ध होकर देखते रहते हैं।
सांप, बिच्छू, नेवला वगैरह जीव-जंतु अपने आसपास होकर भी नजर नहीं आते,मगर टोह लेते रहते हैं। किसी जंगल के रास्ते पर शेर,बाघ ,भालू नजर नहीं आते हैं,मगर घात लगाए किसी झाड़ी की आड़ में होते हैं।यह दुनिया एक
लुका-छिपी का खेल है, यहां वहीं बाजी मारी लेता है,जो छिपा हुआ है। अपनी बात को छिपाने की कला में माहिर लोग सफल होते दिखते हैं, मितभाषी का मतलब होता जो, बहुत कुछ छिपा सकता है।मौन से बढ़कर कोई पर्दा नहीं है। यहां बिल्ली छिपकर दुध पीतीं है, शत्रु छिपकर वार करता है।
 दीवार, किसलिए है? चीन की दीवार तो दुनिया की सबसे बड़ी दीवार है।घर की दीवारें और घर में दीवारें,ये सब
इसलिए कि कुछ छिपा सकें।
 यहां खिड़की और दरवाज़े पर पर्दे है। यहां तक कि आंखों पर भी पर्दे है। हरकोई अपनी असलियत छिपा रहा है।
   अपनी भावनाओं को, मनसूबों को छिपाना एक कला है, इसमें पारंगत लोग सफलता प्राप्त करते हैं।
 इन्सान मुखौटों में जिता हैं।अपना असली चेहरा वह स्वयं भूल चूका है।वह केवल वही प्रस्तुत कर रहा है।जो
 दुनिया के बाजार में बिकता है। दुनिया झूठ की इतनी आदी हो गई है कि असली फूल उसे नकली लगने लगे हैं।
जो जैसा है,वैसा सामने आने में कतरा रहा है इसलिए पर्दे सदा साथ रखता है।नकाब लिए घुमता है। 
कपड़ों के नकाब दिखाई देते हैं,वे तो केवल शरीर को ढंकते है,असली नकाब तो वो है जो चरित्र को ढंकते है। इन्सान का चरित्र दोहरा है।एक जो पर्दे पर है,दूसरा जो पर्दे के पीछे है।
 षड़यंत्र, जालसाजी, कुटनीति ,साजिश ये नेपथ्य में सजावट की सामग्री होती है। सज-धजकर खुलेआम नौटंकी शुरू होती है। संवाद भी तय रहते हैं,बस नाटक सच लगे इसकी फिक्र करनी होती है।
हर एक को अब पर्दा नजर आने लगा है। पर्दे के पीछे क्या है? इसपर वह सवाल उठाने लगा है।
पर्दा हटाकर चीजों को बेपर्दा वह करना चाहता है।नाटक से तो सिर्फ मनोरंजन होता है।
सच्चाई से विकास। पर्दे न उठाने की बातें होती हैं,उन पर्दो पर पहरा है।खरीदें हुए गुलाम, भाड़े के चापलूस 
सदा उनकी देखभाल करते हैं।
छात्र नकल छिपा रहे हैं,अधिकारी भ्रष्टाचार छिपा रहे हैं,नेता कालाधन छिपा रहे हैं,कारोबारी मिलावट छिपा रहे है।छिपाव के हजारों पर्दे हटाने की जरूरत है।
      
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