जीने की जद्दोजहद

                                                   जीने की जद्दोजहद 
                                                                            - ना.रा.खराद
आजकल जीना सहज, स्वाभाविक नहीं रहा है, सुख-साधनों की भरमार ने मनुष्य का सुख छीना है, साधनों का अभाव उसे खलता है,तो उसकी अधिकता भी उबाऊ लगतीं हैं। छोटी-छोटी जरुरतों में भी जो संघर्ष है, उससे पता चलता है कि मनुष्य का सुख किसने छीना है। भाग-दौड़ आपा-धापी जैसे जीवन के अंग बने है।
पशु-पक्षी,वृक्ष लताएं अपनी सहजता में बढ़ते हैं, पनपते हैं, नष्ट होते हैं, किसी तरह का संघर्ष दिखाई नहीं देता, मगर मनुष्य जाति ने पहले से जीवन को संघर्ष माना है, इसलिए वह दिन-रात इस सोच को अमल में लाता है। कोई अगर संघर्ष करता हुआ न दिखाई दें,तो उसे निट्ठल्ला कहा जाता है। 
  जीना अब जद्दोजहद का दूसरा नाम हो गया है। मनुष्यों की भीड़ और भीड़ का हर आदमी अपने मनसूबे पूरे करने के लिए लड़-झगड़ रहा है।कभी उसे आंदोलन तो कभी स्वाभिमान कहा जाता है।कभी हक तो कभी कर्तव्य कहा जाता है और इसी तरह किसी न किसी संघर्ष में परोक्ष रुप से हर आदमी शामिल हो जाता है।
 असीम महत्वाकांक्षाएं तथा हुकुमत की चाह ने मानव का सुकून छीना है।बस में जगह पानी हो या सार्वजनिक शौचालय में जाना हो तो बड़ा संघर्ष है।सांसें ख़रीदनी नहीं पड़ती मगर उसका चैन खरीदना पड़ता है। हजारों कामनाएं इन्सान को दौड़ा रहीं हैं,वह थकता भी है तो बरगद की छांव उसके नशीब नहीं है। हर क्षेत्र में आगे बढ़ने की होड़ लगी है, मगर आदमियत खोकर मिली कामयाबी चैन नहीं देती।
   छीना-झपटी, लूटमार, धोखाधड़ी इस युग की देन है,यह युग जद्दोजहद या संघर्ष का है, किसी को धक्का दिये बिना यहां आगे नहीं बढ़ सकते, किसीको लूटें बिना अमीर नहीं बन सकते,बिन मांगे,बिन छीनें यहां कुछ मिलता नहीं है। लोगों की परेशानियां तक उनकी अपनी जद्दोजहद से उपजी है। मनुष्य कुछ पाना चाहता है, कुछ खोजता है, कुछ बनाना तो कुछ मिटाना चाहता है और यहीं चाहतें उसके सुख-चैन में रोड़ा बन जाती है।
जीने में इतनी जद्दोजहद किस बात की परिचायक है,यह सोचना आवश्यक है।हर आदमी दौड़ रहा है,यह दौड़ केवल बाहरी नहीं है बल्कि अंदरुनी है। जैसे उसकी आत्मा तड़प रही है, कुछ पाने के लिए। इन्सानों
भीड़ थीं,अब उनके वाहनों की , फिर दूकानों की और इसी भीड़ में वह छटपटा रहा है ।जीवन अब जिस तरह से पारिभाषित हो रहा है, उससे इन्सान ने जीवन को क्या माना है, इसका अंदाजा लग सकता है।
 यहां बेचनेवाला और खरीदनेवाला समान रुप से परेशान हैं। यहां डाक्टर की परेशानी किसी मरीज से कम नहीं, शिक्षक और विद्यार्थी दोनों संघर्ष कर रहे हैं और करा रहे हैं। यहां कोई किसी को सुकून से जीने नहीं दे रहा है।हर सोनेवाले को जगाया जा रहा है।जो जागा है उसे दौड़ाया जा रहा है।
 इस युग के आदमी को क्या हो गया है,वह इतना क्यों पाना चाहता है। पाकर भी उसे सुकून नहीं,उसकी दौड़ अगर कभी थमतीं नहीं,तो कैसे वह चैन पायेगा।

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