फेंकूं मित्र
जैसा कि उसने कहा था कि, उसे शहर में हरकोई पहचानता है, इसलिए मैं बेफिक्र था। मैं बस स्थानक पर उतरा और वहां खड़े एक यात्री को पूछा,जो अभी बस से नीचे उतरा था,और स्थानीय लग रहा था। मैंने जब अपने मित्र के बारे में पूछा तो उसने कहा," इस शहर में यह नाम पहली बार सुन रहा हूं।" वह पेशे से पत्रकार था ,शहर के सभी प्रतिष्ठितों के नाम वह जानता था, मगर मेरा मित्र जो कि प्रतिष्ठित होने का दावा कर रहा था, पत्रकार के जवाब से झूठ लग रहा था। वैसे भी उस मित्र को बचपन से डिंग हांकने की आदत थी।हर चीज को बढ़ा चढ़ाकर पेश करना, जैसे उसकी फितरत थी। थोड़ा आगे बढ़ा,एक पान की दुकान थी।सोचा,वह पान का शौकीन है, आता होगा और बातूनी भी था।यह दुकानदार उसे अवश्य पहचानता होगा, मगर वहां भी मेरी उम्मीद पर पानी फेर गया पानवाले ने कहा," मैं तुम्हारे मित्र को जानता हूं, मगर उसका घर नहीं।" कभी कभी हमारी दुकान पर पान खाने आता है, अगर कोई खिलानेवाला मिल जाए तो!"
मित्र की प्रतिष्ठा का अंदाजा लग रहा था।
वहां कुछ रिक्शाएं खड़ी थी, मैंने उनसे पूछा। एकसाथ दो चार रिक्शा वालों ने कहा," साला वो बेवड़ा,कितनी दफा उसे घर छोड़े मगर भाड़ा देता नहीं।" यहां भी मित्र की मुफ्तखोरी का पता चला।
अब मैं निराश हो रहा था। किसी से पुछे या नहीं उलझन में था। जैसे तैसे मैं उस मोहल्ले में पहुंच गया, जहां उसका घर था। मालुम होते हुए भी मोहल्ले वाले, हमें नहीं मालूम, बड़े घृणा से कहते थे। इससे अनुमान हुआ कि मित्र ने काफी नाम कमाया है।
उसके पड़ोसी को पुछा तो उन्होंने",सही जगह पहुंचे, कुछ उधार है क्या उनपर?" मैं सहम गया ।मेरी आवाज़ सुनकर वो बाहर आया। उसने मुझसे पूछा, कोई अड़चन आयी घर पहुंचने में?"
मैंने कहा," तुझे सारा शहर पहचानता है, अड़चन कैसी आ सकती है!" वह संतुष्ट हुआ,और मैं संतप्त!
- ना.रा.खराद