दुल्हन की आत्मकथा

            दुल्हन की आत्मकथा
                                   - ना.रा.खराद
जब लड़के ने मुझे पसंद किया तो सबके चेहरे खिल गए। मैं सुंदर तो नहीं हूं मगर हर जवान लड़की की तरह मैं भी सुंदर लगने लगी थी।मुझपर नजरें टिकने लगी थी।मेरे उभरते सीने की तरफ ललचाई आंखों से लोग घुरने लगे थे।यौवन खिले फूलों की तरह होता है,उसका रंग,आकार और खुशबू छिपा नहीं सकते।इससे मेरे माता-पिता आहत होते। परिचित लोग उनसे मेरी शादी के बारे में पुछते,मेरे पिता अच्छे वर की तलाश में थे। मुहल्ले के लड़के मुझे घुरा करते।मुझे पाने को लालायित रहते।
कोई मेरे बारे में अफवाहें फैलाता, इश्क की झूठी खबरें फैलाते।मेरे पिता और भाई इससे चिंतित हो जाते। लड़की का बाप होना क्या होता है, उन्हें पल-पल एहसास होता, इससे मुझे दुख होता मगर इस बारे में मैंने उनसे कुछ नहीं कहा।
मुझे आजतक कई लड़कों ने नापसंद किया,मेरे
पिता मुझे समझाते बुझाते मगर मैंने अपना दुख
उनके सामने कभी प्रकट नहीं किया, पिताजी मेरे मन की बात जल्द भांप लेते थे।मेरे रंग रुप के बारे में जब लड़केवाले चर्चा करते तो मुझे लड़की होने पर मलाल होने लगा।अब मेरी उम्र हद कर रही थी।अब किसी भी स्थिति में शादी होना जरुरी है,ऐसी बहस घर में चलती थी।यौवन की वजह से मेरे सौंदर्य में निखार आया था। देखनेवाले मेरे हर अंग को देख लेते थे,उनका बस चले तो..... देखते। मुझे इससे घृणा होती थी।शादी को पवित्र बंधन कहते हैं, मुझे यह झूठ लग रहा था।यह बंधन तो है मगर पवित्र तो कदापि नहीं है।
इस बार लड़की पसंद है का संदेश आया तो परिजन फूले नहीं समा रहे थे।हर किसी को खुश खबरी सुना रहे थे ,मगर मैं उस दिन से बहुत उदास रहने लगी हूं।यह सोचकर मैं दुखी हो रही थी कि मैं अब पराई हो जाऊंगी,मां बाप से अलग। मैं सोचकर घबरा जाती थी,मेरे लिए मां बाप से बढ़कर कोई नहीं था। उनसे जुदा होने की मैं सोच भी नहीं सकती।घर में शादी की तैयारी चल रही थी। पैसों का जुगाड पहले से था।घर का हरकोई तैयारी में लग गया था। मुझे अपना घर पराया लगने लगा,अबघर छोड़ जाना है ,यह सोचकर मैं रो पड़ती थी।मेरी सहेलियां मुझे चिढ़ाती थी। मैं अब रानी बन जाऊंगी ऐसा कहती तो मुझे अपने के वे शब्द याद आते थे,पिता अक्सर मुझे राजकुमारी कहते थे। हां,और यह सच भी था क्योंकि वे मेरी हर ख्वाहिश पूरी करते थे। मैं जानती हूं,जब से मेरी सगाई हुई पिताजी भी उदास रहते थे पर झूठी ख़ुशी दिखाते थे। शादी इतनी धूमधाम से क्यों होती है,यह सवाल मेरे मन में उठ रहा था।
बाजा, पटाखे,भोजन,नाच-गाना जैसे मेरे जले पर नमक छिड़क रहा था। मेहंदी से मेरे हाथ
सजाएं गये थे।सोलह शृंगार किया गया था।मेरी
सहेलियां हास-परिहास कर रही थी। बड़ी सज-धज कर आयी थी। विभिन्न पकवानों की खुशबू फैल गई थी‌।बाराती भोजन का स्वाद ले रहें थे।हास परिहास का माहौल था।इतनी भीड़ में मेरी नजरें अपने पिता को तलाश रही थी। पिता जी बिना थके हर तरह का काम कर थे।
मैं जानती हूं,वे भीतर से बहुत उदास थे।मेरी तरह वे भी मेरे बिना नहीं रह सकते थे।काम से
घर आने पर आते ही मुझे आवाज लगाते थे और
उठाकर मुझे कंधे पर लेते थे। मेरे लिए हर दिन
खाने को लाते थे।बाजे की आवाज से मैं और परेशान हो गयी। जैसे मेरे दुख का मजाक उड़ाया जा रहा हो।दूल्हा मुझे कनखियो से झांक रहा था, गहनों से मुझे सजाया गया था।इत्र की खुशबू फैली थी मगर मेरी मनोदशा कोई नहीं जान रहा था सिवा मां बाप के!
अतिथियों का स्वागत हो रहा था। मुख्य द्वार पर
साफे बांधे परिजन थे जो हाथ जोड़कर हंसकर
उनका स्वागत कर रहे थे।
पंडित जी ने मंत्र पढ़ने शुरू किए,अब कुछ ही
समय बाद मैं पराई हो जाऊंगी यह सोचकर मैं
भीतर से कांप रही थी। जैसे कोई जल्लाद फांसी
फंदे पर लटका रहा हो। तोहफे में आयी वस्तुओं
पर चर्चा हो रही थी।भोजन गृह में भीड़ थी।
सब तरफ चहल-पहल थी। मैं अपने पिता को खोज रही थी। मैं चीखकर कहना चाहती थी, मुझे अपने पिता से अलग मत करो मगर मेरी भावनाओं की कीमत न थी। बाहरी चमक दमक ही जैसे जिंदगी बन गई थी। जैसे ही शादी का बिगूल बजा , मैं टूट गई। मुझे अपने पल-पल याद आयेंगे तो मैं क्या करूंगी,यह सोचकर मुझे
रोना आ रहा था।सारी रस्में पूरी होने पर जब विदाई का समय आया तो ,हर करीबी वहां था।उदास चेहरे लिए सब खड़े थे। मैं हरकिसीको  ऐसे देख रही थी जैसे आखरी मुलाकात हो।
जब मैं अपने पिता के गले लगी तो मुझे अपना
बचपन याद आया। कितना सुकुन मिल रहा था।
मैं फूट-फूटकर रोने लगी।पिताजी का भी सब्र टूट गया।हम दोनों बहुत रोएं। मैं जब ससुराल वालों के कार में बैठी तो जैसे आसमान फट गया। पिताजी बहुत रोने लगे। मैं खिड़की से बाहर देखने लगी। गाड़ी धीरे बढ़ने लगी, मैंने शीशे में से देखा पिताजी मेरी तरफ अभी भी
देख रहे थे।
Tags

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.